Sunday 4 August 2013

यहीं से होता हुआ



जी हाँ
यहाँ से सीधी
जाती है गली
ठेठ ऊपर
भैरों बाबा के थान तक

यह गली
सुबराती के माकन से
धोबियों कुम्हारों को
बाँटती हुई

गली की काट पर
चौधरी कि हथाई है
थोडा चले आगे
सक्के और नाई हैं

ढह गई है
खाती की खतवार
कुछ भी कहाँ बचा है
बह गई है
वक्त के थपेड़े सहती हुई
लुहार कि लौह्सार

कहाँ रह गई है अब
गवांरियों की
कन्घियाँ बनाती
करोतियों कि धार

कितना दबंग था
बाबा सेठ कलार

अब न हाल बनता है
न फाल
न जूडी न तलौटी  

दांते पयास कुडी
खुणीता पिरानी
संग्रहालय की वस्तुए है

कौन जाने कहाँ चली गई
बैलगाडियां
और बैलजोड़ियां

यहीं से होता रास्ता
जाता है स्टेशन
सड़क जाती है शहर को
कभी चला जाऊंगा मैं भी
यहीं से होता हुआ

गौरी कुछ दोहे


....................

तेरी नीम बेहोशियाँ और ये नीम हकीम
गौरी दर्दे देह की ,हुई नहीं तरमीम /

गौरी तेरी भ्रकुटियाँ तरकश ,तीर ,कमान
मोहित होकर गिर गया पाखी लहूलुहान /

गौरी तेरी रागिनी ,बजता हुआ सितार
रंग रसीले लोग है ,आबैठे भिनसार /

गौरी तेरे गाँव में पीपल नीम बबूल
मै राही मरूदेश का राह गया हूँ भूल /

गौरी हम तुमको गए बहुत दिन बीत
हमें सुनादो बांसुरी ,पहले जैसे गीत

Saturday 3 August 2013

नवगीत


चाकू छुरी खुर्खुरी
कुछ भी
चाहे हॊ तलवार

कटती नहीं , कोई भी वस्तु
हुई भोंथरी धार

फिर गिलोल से कंकर आया
किसकी है गुस्ताखी
फड फड फड फड गिर तडप कर
खूना खूनी पाखी

काला पीला हरा बैगनी
नहीं छपा अखबार

शीशम नीम खजूर बकायन
ऊंचे बहुत खजूर
एक अहाते गलियारे में
लगते दूर -म- दूर

पाचन बिगड़ गया बस्ती का
खट्टी हुई डकार

पता है तुम्हें

पता है तुम्हे
नीम की मंजरिया
झुलस कार गिर रही है
रोज़ - ब -रोज़
गंधियाता है गलियारा

पता है तुम्हे
सेमर सुर्ख हुए
बिखर गए
अमलतास पर
झूल रही है
काली कट्ट फलियाँ
पलाश की प्रौढ़ हुइ है
रतनार कलियाँ
अमवारी में
बौर झड़ गए
पड़ोसी की नीमड़ी पर
काग ने
बनाया है घोसला
पता है तुम्हे
इस बरस
सरसराहट नहीं हुई
टिटहरियों
गिलहरियों
चिड़ियों,गौरेयाओ के बीच

नहीं सुनाई पड़ी
कोकिल कंठी तान
कहीं बिला गइ वह
पल्लवी मुस्कान

देव मार्तंड
सुखाये दे रहा है
धरती पर बचा हुआ
थोड़ा बहुत पानी
करील कचनार की
मिट रही कहानी

जाने-अनजाने

कोई खिलता है फूल
कभी कभी दिखताहै
जहाज का मस्तूल
उड़ने लगती है धूल

जाने अनजाने
मिलता है
कोई मकबूल
................
मिलती है दो राहें
मिलती है दो निगाहे

जाने अनजाने
मिलती है दो चाहे
.................
पकता है दल पर
कोई फल
लिखी जाती है
कोई खानी गदल
जाने अनजाने
मिलता है
मंमोहक्पल
खिलता है
मनुष्यता को सहेजता
शहस्त्र दल कमल
....................
कभी आता है
इच्छित इतवार
लहरता है
हितेश व्यास का
लहरदार
कोई थाम लेता है
पतवार
जाने अनजाने
हो जाता है प्यार
....................

ताल-पाल नहरें-लहरें

पहाड़ियों के
रूप रस गंध
पीता हुआ
सराबोर करता हुआ
सम्पूर्ण बनराय को
सिमट-सिमट आता है
जलाशय में
सुदूर तक फैला हुआ
नीलमणि

मानसरोवर ताल
जिसको थामती है
धूल-धूसरित पाल

यहाँ -वहां सूख रहे
हरे -पीले लूगड़े
उन छबीली स्त्रियों के है
जो नहा रही है
घाट पर

तैर रही है नावें
चल रही है नहरें
उठ रही है लहरें

गुलनार

गुलनार
--------
जैसे कोलाहल में
सुनाई दिया हो
मंद मंद सितार

भादवे के मेघ की
गिरती हो फुहार
जैसे मालकांगनी ने
किया हो श्रंगार

लावण्य मयी धरती में
हुई हो झंकार

हे गुलनार
तुम मरूधर में
बहती हुई जल धार

तुम रसवन्ती हो
वासन्ती हो
अंजुरी में सद्यस्नात
मोगरे के फूल
निस्सीम सागर में
फहरता मस्तूल

हे गुलनार
तुम सौन्दर्य का विस्तार

घड़ा

मैं ओक लगाकर पीता रहा
इस उम्र तक
एक अरसा बीत रहा
कौन सा घडा है
तुम्हारे हाथों में

न रीत रहा
न हिल रहा
न मिल रहा
बहुत ढूँढने तक

तबस्सुम

शब्दमयी तुम
गंध मयी तुम
रूप रंग रस
गुण लेकर

फूल पात
घाटी पठार पर

ताल तलैया
डगर नगर में
अरूनाई तरूणाई
चप्पे चप्पे पर

गंदुम गंदुम
कौन बिखेर गया
यहाँ कुमकुम

सोना ही सोना
बिखर रहा
अंग और प्रत्यंग
दमक कर निखर रहा

खिली खिली सी
हरी डाल पर
बुल बुल सी तुम
कौन तबस्सुम

नीम के पत्ते





नीम के पत्ते
अहाते में पड़े
रह जायेंगे

एक दिन यूँ आएगा
हम खड़े ढह जायेंगे

रातरानी की महक
गंधियाएगी जब आंगने
कौन आएगा
तुम्हारे बाजुओ को थामने

जो हितैषी बन रहे है
सब आधे रह जायेंगे

कल सुबह होगी
कि कागा पंख जब खुजलायेगा
आहटें देंगीं सुनाई
कोई चुप चुप आयेगा
बहुत सा पानी बहेगा
किनारे बह जायेगें

जब खिलेगी नीलिमा
कचनार के उस पद पर
गुम नहीं होना

माँ

दुनियांदारी और जिन्दगी में
आये लाखों इंशा
सबसे प्यारी सबसे न्यारी
अच्छी सच्ची मेरी माँ

कौन सहेगा अंधड़ बारिश
ठिठुरन ,जकड़न और तपन
चक्करघिन्नी हुई फिर्किनी
कोसों दूरी रखे थकन

खानाबदोश जिनका जीवन
बनते उनके कहाँ मकां

तरह तरह की बात सुनाई
सिखलाये ,जज्बात ,मुझे
रही दहकती राख हो गई
सुलझाये उलझे धागे

चूल्हा चौका जातन बर्तन
रस्सी मटकी और कुआँ

लालन पालन से पोसण त़क
कर्म भूमि में वह आई
दूर देश जब गया कमाने
उसकी ममता ललचाई

अपने हिस्से रहे उजाले
माँ के आँगन रहा धुंआ

धूप में नहायेंगे


संवलाई रात गई
आगया प्रभात

आसमान मुस्काया
किरन ही किरन
धूप में नहायेंगे हिरन

थक गए अकेले में
चलो चलें मेले में
कुछ न कुछ खरीदेंगे
टके और धेले में

चरखी झूलों की
देखेंगे फिरन
धूप में नहायेंगे ...

आहट अकुलाहट है
जिन्दगी के गाँव में
चलते चलते छाले
पड़ गए हाई पाँव में

दरिया में देखेंगे
नाव की तिरन
धूप में नहायेंगे ....

बचपन तो बचपन
लंगड़ी सितोलिया
गलियों चौबारों की
धूल ने समोलिया

गाँव में बुलाते है
बाखर आँगन
धूप में नहायेंगे हिरन

Thursday 1 August 2013

उजड़ना



  उजड़ना
देखते-देखते
उजड गई
मेरे शहर की
पहाडियों की हरितिमा
उजड गए जलाशय
उजड गई
रंग-मंडलियां
उजड गई कविताएँ-कहानियाँ
रहीम के दोहे, कबीरा की बानियां

रोक दिया गया बहता पानी
बांध दिया गया गाडाडूब
कहाँ बच पाए पटपड़े
कहाँ बच पाई वह दूब

फफोलों सी उठती कॉलोनियां
लील गई है सब खेत-खेतार
रानी हिंडोले से
खंडार के खटोले से
कुशाली दर्रे
या भैरों दरा से
कहा से आये
इस शहर में कुविचार

टेसू वनांचलों से
सुन्दरतम रहा मेरा शहर
पंचसितारा होटलों
भू माफियाओ की अटकलों से
उधड रहा है
सवाई माधोपुर है मेरा शहर
उजड रहा है