Sunday 28 July 2013

साईकिल


और क्या करते पिता
फिर से ले गए मुझे उसी स्कूल में
जिससे लगातार अनुपस्थित रहने के चलते
निकाला गया था मुझे हाल ही में

बहत्तर सीढियों वाला
वह विशालकाय भवन
उच्च माध्यमिक विध्यालय
प्रिंसिपल के समक्ष
गिडगिडाते हुए कहा पिता ने
मैं तो मजदूर हूँ मालिक
रेल पटरियों की गैंग मेंकरता हूँ मजदूरी

एक बार और दाखिला दे दें
मेरी अर्जी पर बमुश्किल आया हूँ
जमादार से छुट्टी लेकर
अब तस्वीर से
मुझे देखते रहते है पिता

नवीं फेल होने पर भी
स्टेशन से शहर जाने के लिए
दिलवाई मुझे साईकिल

जैसे शरीर और प्राण
रहते है एकमेक
जाने कहाँ –कहाँ
किसी भी मौसम में
जाती आती रही मेरे संग

नदी नाले पार करती रही
मेरे वश में नहीं अब
आवास की छत के टिकी है अब वह

इन दिनों
जब बारिश घिर रही है
कर देता हूँ उलट-पलट
देखता हूँ निरंतर
जंग से घिर रही है
पिता मुझे टोह रहें हैं
                              

देश - प्रदेश



रोजी – रोटी के लिए
घर से दूर गए बच्चों के
आते है फोन
बात करना चाहते है
उनकी माँ से
बतियाते हैं घर की
बाहर की भीतर की
लेते है तरह – तरह के
विगतवार समाचार
आह्ल्हादित होते है

सितम्बर लग गया
कुरजां का हो गया आगमन

राजस्थान  के ताल तलैयाओ के किनारे
आई है कुरजां
छोडकर अपने बर्फीले प्रदेश
चले गए है जैसे हमारे बच्चे
छोड़कर अपना
देश-प्रदेश I

तस्वीर में औरत



किसी रंगीन पत्रिका का
मध्यम पृष्ठ है यह
दो सो गई
एक खो गई

दो औरतो ने
अपनी आँखे
इंतजार में भिगोयीं 

किसी ने कहा
औरतें होती हैं
सृष्टि का प्रेम

पारिवारिक पृष्ठभूमि में
संघर्ष के कठिन
दुर्दांत क्षणों में
मजबूत बनती फ्रेम

तस्वीर में है औरतें
या औरतों में तस्वीर
कैसे पढ़ पाए कोई
चित्रमय शरीर